Thursday, October 22, 2009

मैं बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...

मैं बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...
कल तक तो मई आबाद था, पर अब बर्बाद हूँ....

तोता-मैना मिला करते थे मेरी डाल पर...
खिल जाता था मेरा चेहरा मोर की आवाज पर...

बारिश की बूँदें मुझे छेड़-छेड़ कर जाती थीं...
खूबसूरत कलियाँ मुझ पर भी खिल आती थीं...

लेकिन फिर चला आया खिज़ा का मौसम...
हो गईं इक दिन आँखें मेरी भी नम...

चारों तरफ नज़र आ रहा था पतझड़...
लग रहा था आने वाले दिनों से मुझे डर...

मेरे अरमान बिखर गए पत्तों की तरह...
पंछी भी उड़ गए बेगानों की तरह...

पहले मै लेह-लद्दाख था, अब तो बग़दाद हूँ...
मै बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...

एक बार फिर एक दिन सावन का वो कल आएगा...
उस पल के लिए मैं बेकरार हूँ...
पहले मैं आबाद था, अब बर्बाद हूँ...
मैं बर्बाद-ऐ-गुलिस्तां का सूखा झाड़ हूँ...



5 comments:

  1. शानदार रचना ...
    वाकई काबिल-ऐ-तारीफ प्रस्तुति ...
    छुपे रुस्तम को प्रमोट करने का अच्छा काम किया है |
    वेरी गुड ...
    खेम भाईसाब के साथ साथ आपको भी ढेरों बधाई |

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  3. waah kafi badiya..muje ye bahut pasannd aaya ..jis trah se basant aaane k baad patjhad bhi aata h..usi trah fir basant aayegi..bas umeed ka daaman mat chodiye kyunki raat k baad subah jarur hogi....vo bhaar fir aayegi aur ek baar fir vaoi pakshi apna aashiyana use hi chunege....keep it up ..al d bst

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