आओ आज मिलकर एक फैसला लें,
एक फैसला ले कि, इस मुल्क में होने वाले हर एक आतंक से हम लड़ेंगे, और हर उस आँख को फोड़ दिया जाएगा जो इस मुल्क की तरफ़ गलत इरादों से उठेगी...हम आगे से कभी भी, किसी भी जाति-धर्म के लिए नहीं लड़ेंगे l आओ मिलकर एक कसम खाएँ कि हम जागरूक रहेंगे, सचेत रहेंगे l उन चंद हथियारबंद लोगों का खौफ हमें नही रोकेगा, बाज़ार जाकर अपनी बेटी के लिए सुहाग का जोड़ा खरीदने से l बहने बेखौफ होकर अपने-अपने भाइयों के लिए उनकी मनपसंद मिठाई बाज़ार से लाएँगी l बच्चे और बड़े, सब खुलकर दिवाली पर खरीदारी करेंगे l हम आज कसम खाएँ कि हम किसी के भाई, किसी के सुहाग, किसी के बेटे का वो बलिदान कभी नहीं भूलेंगे जो उसने दूर सरहद पर हमारे लिए दिया था l हम न भूलें कि हमें चैन कि नींद देने के कोई रात-रात भर वहां पहरा देता है...l सबसे खास बात ये, कि कोई अपनी जान खतरे में डालकर दुश्मनों से लोहा लेता है, और हँसते-हँसते इस मिट्टी का क़र्ज़ चुकाने के लिए ये देश, ये वतन हम पर छोड़ कर चला जाता है...
Saturday, September 12, 2009
Wednesday, September 9, 2009
मुझे लिखने का शौक नहीं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उन यादों को इस दिल में ताजा रख सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उस चेहरे की मासूमियत को, इन आँखों में याद रख सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उस पल की खट्टी-मीठी यादों को ध्यान कर अश्क बहा सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उस आफ़ताब को देखकर कह सकूं, कभी तू मेरे पास था...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उन जुल्फों के उस बदल की बारिश में भीग कर बीमार पड़ सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उन शराबी आँखों के नशे में डूब सकूं...
मैं बस इसलिए लिखता हूँ,
क्योकि मैं उन्हें भुलाना नही चाहता...
बस इसलिए लिखता हूँ,
ताकि वो हमेशा मेरी कल्पनाओं में उड़ सकें...
मैं बस इसलिए लिखता हूँ,
ताकि जब चाहूँ, खुद को पढ़ सकूँ...
मैं बस इसलिए लिखता हूँ,
ताकि इस दिल की गर्माहट को उस चाँद की शीतलता से ठंडा कर सकूं...
बस लिखता रहूँ...
लिखता रहूँ...
लिखता रहूँ...
लिखता हूँ, ताकि उन यादों को इस दिल में ताजा रख सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उस चेहरे की मासूमियत को, इन आँखों में याद रख सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उस पल की खट्टी-मीठी यादों को ध्यान कर अश्क बहा सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उस आफ़ताब को देखकर कह सकूं, कभी तू मेरे पास था...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उन जुल्फों के उस बदल की बारिश में भीग कर बीमार पड़ सकूं...
मुझे लिखने का शौक नहीं,
लिखता हूँ, ताकि उन शराबी आँखों के नशे में डूब सकूं...
मैं बस इसलिए लिखता हूँ,
क्योकि मैं उन्हें भुलाना नही चाहता...
बस इसलिए लिखता हूँ,
ताकि वो हमेशा मेरी कल्पनाओं में उड़ सकें...
मैं बस इसलिए लिखता हूँ,
ताकि जब चाहूँ, खुद को पढ़ सकूँ...
मैं बस इसलिए लिखता हूँ,
ताकि इस दिल की गर्माहट को उस चाँद की शीतलता से ठंडा कर सकूं...
इसलिए कोशिश करता हूँ की,
बस लिखता रहूँ...
लिखता रहूँ...
लिखता रहूँ...
- देवास दीक्षित
एक कहानी...
सावन का था मौसम जब देखा उसे पहली बार,
लगा जैसे सूनी महफिल-ऐ-जिंदगी में आ गयी हो एक नई बहार...
उसे देख एक मिनट में दिल धड़का एक सौ चार,
मन बोला, शाणे अब हो गया तुझे भी प्यार...
अरे ये तो बताना ही भूल गया दिन था वो बुधवार,
कितना हसीन था वो लाल दुप्पटे पे सफ़ेद सलवार...
ज़रा सी शरमाई हुई, खड़ी थी बस के इंतजार में,
साथ था एक दोस्त उसके, वो भी था उसीके जुगाड़ में...
अगले दिन जब वो हमसे टकराए तो लबों पर उनके मुस्कान आ रही थी,
क्या बताये मगर हमे भी, माँ कसम बहुत शर्म आ रही थी..
शर्माते हुए हम दोनों ने एक दूजे के नाम जाने
शर्म के अलावा हम भी थे और कुछ मन में ठाने...
हर पल सोचने लगे, उनसे बात करने के बहाने,
और तो और मिलने से पहले लग गए पांच-पांच बार नहाने...
दिल की बेचैनी हमारी पल-पल बढ़ती जा रही थी,
घर में, सड़क पे, जहा देखो वो ही वो नज़र आ रही थी...
मैं तो अब पालक की सब्जी खाने लगा था
तरह-तरह के कपड़े आज़माने लगा था..
ध्यान अब अपना रखने लगा था,
बार-बार आईना देखने लगा था,
कश्मकश है कैसी बताओ मेरे यार,
बस बता दो क्या ऐसे ही होता है प्यार...
ये सोचने में क्या यही है प्यार की बला,
दो महीने कैसे बीत गए कुछ पता ही न चला...
इन दो महीनो में हम जूस की उस दुकान पर मिलने लगे,
लगा ऐसे जैसे दिल में बहार के गुल खिलने लगे...
साथ-साथ घूमना, उन्हें हँसाना, यही हमारा काम था,
इन दो महीनो में इन लबो पे बस उनका ही तो नाम था...
दिल ने कहा कह दे, गर हो ख्वाहिशें हज़ार,
पर उस दिन हुआ उनका बस इंतज़ार, इंतज़ार, इंतज़ार...
दो बजे का था टाइम, घड़ी बजा रही थी चार,
हम कर रहे थे अभी भी उनका इंतज़ार,इंतज़ार,इंतज़ार...
शाम को सोचा, कहीं पता करें, कुछ तो मिले समाधान,
सोचा किसी ने ठीक कहा है, ये इश्क नहीं आसान...
शाम को कुछ लोग आये, और हमसे ये कह गए,
हमेशा के लिए वो गईं पटना और हम तन्हा रह गए...
खाने-पीने का न रहा ख्याल,
आता मन में एक सवाल...
प्यार बहुत खूबसूरत है, पता नहीं है किसने कहा,
आकर कोई हमसे पूछे, है क्या हमने सितम सहा...
रह-रह कर एक सवाल मेरे मन में आया,
पूछ रहा था भगवान से, तूने पटना क्यों बनाया???
चाहत थी कोई हमे भी चाहे, हम भी हों कमज़ोरी किसी की,
ऐ खुदा कैसा गज़ब ढाया , हम तो याद भी न बन सके किसी की...
लगा जैसे सूनी महफिल-ऐ-जिंदगी में आ गयी हो एक नई बहार...
उसे देख एक मिनट में दिल धड़का एक सौ चार,
मन बोला, शाणे अब हो गया तुझे भी प्यार...
अरे ये तो बताना ही भूल गया दिन था वो बुधवार,
कितना हसीन था वो लाल दुप्पटे पे सफ़ेद सलवार...
ज़रा सी शरमाई हुई, खड़ी थी बस के इंतजार में,
साथ था एक दोस्त उसके, वो भी था उसीके जुगाड़ में...
अगले दिन जब वो हमसे टकराए तो लबों पर उनके मुस्कान आ रही थी,
क्या बताये मगर हमे भी, माँ कसम बहुत शर्म आ रही थी..
शर्माते हुए हम दोनों ने एक दूजे के नाम जाने
शर्म के अलावा हम भी थे और कुछ मन में ठाने...
हर पल सोचने लगे, उनसे बात करने के बहाने,
और तो और मिलने से पहले लग गए पांच-पांच बार नहाने...
दिल की बेचैनी हमारी पल-पल बढ़ती जा रही थी,
घर में, सड़क पे, जहा देखो वो ही वो नज़र आ रही थी...
मैं तो अब पालक की सब्जी खाने लगा था
तरह-तरह के कपड़े आज़माने लगा था..
ध्यान अब अपना रखने लगा था,
बार-बार आईना देखने लगा था,
कश्मकश है कैसी बताओ मेरे यार,
बस बता दो क्या ऐसे ही होता है प्यार...
ये सोचने में क्या यही है प्यार की बला,
दो महीने कैसे बीत गए कुछ पता ही न चला...
इन दो महीनो में हम जूस की उस दुकान पर मिलने लगे,
लगा ऐसे जैसे दिल में बहार के गुल खिलने लगे...
साथ-साथ घूमना, उन्हें हँसाना, यही हमारा काम था,
इन दो महीनो में इन लबो पे बस उनका ही तो नाम था...
दिल ने कहा कह दे, गर हो ख्वाहिशें हज़ार,
पर उस दिन हुआ उनका बस इंतज़ार, इंतज़ार, इंतज़ार...
दो बजे का था टाइम, घड़ी बजा रही थी चार,
हम कर रहे थे अभी भी उनका इंतज़ार,इंतज़ार,इंतज़ार...
शाम को सोचा, कहीं पता करें, कुछ तो मिले समाधान,
सोचा किसी ने ठीक कहा है, ये इश्क नहीं आसान...
शाम को कुछ लोग आये, और हमसे ये कह गए,
हमेशा के लिए वो गईं पटना और हम तन्हा रह गए...
खाने-पीने का न रहा ख्याल,
आता मन में एक सवाल...
प्यार बहुत खूबसूरत है, पता नहीं है किसने कहा,
आकर कोई हमसे पूछे, है क्या हमने सितम सहा...
रह-रह कर एक सवाल मेरे मन में आया,
पूछ रहा था भगवान से, तूने पटना क्यों बनाया???
चाहत थी कोई हमे भी चाहे, हम भी हों कमज़ोरी किसी की,
ऐ खुदा कैसा गज़ब ढाया , हम तो याद भी न बन सके किसी की...
- देवास दीक्षित
Sunday, September 6, 2009
पत्रकार बन रहा हूँ मैं
बहुत इठलाता था पर,
अब थम गया हूँ मैं,
पत्रकार बन गया हूँ मैं...
चाहत थी देश, विदेश बनाऊं
सदविचारों से माहौल सजाऊं
पर शायद अब भटक गया हूँ मैं,
क्या पत्रकार बन गया हूँ मैं ???
चाहत थी हों निर्भय सब,
न हो डर का साया अब,
शायद खुद ही सहम गया हूँ मैं,
क्या पत्रकार बन गया हूँ मैं ???
माहौल सजा है अदभुत कैसा,
शोहरत ताक़त चाहिए पैसा
अब तो कमा रहा हूँ मैं,
क्या पत्रकार बन रहा हूँ मैं ???
हंसी के फव्वारे दिखाता हूँ,
रात में जुर्म से मिलाता हूँ,
मासूमों को पैसा दिलाता हूँ,
रावण के दर्शन कराता हूँ,
क्या इतना बदल गया हूँ मैं ???
पर यह सब करके इस अंधे बाज़ार में,
शायद अब जम गया हूँ मैं...
हां भाई हां...
अब तो पत्रकार बन गया हूँ मैं...!!!
अब थम गया हूँ मैं,
पत्रकार बन गया हूँ मैं...
चाहत थी देश, विदेश बनाऊं
सदविचारों से माहौल सजाऊं
पर शायद अब भटक गया हूँ मैं,
क्या पत्रकार बन गया हूँ मैं ???
चाहत थी हों निर्भय सब,
न हो डर का साया अब,
शायद खुद ही सहम गया हूँ मैं,
क्या पत्रकार बन गया हूँ मैं ???
माहौल सजा है अदभुत कैसा,
शोहरत ताक़त चाहिए पैसा
अब तो कमा रहा हूँ मैं,
क्या पत्रकार बन रहा हूँ मैं ???
हंसी के फव्वारे दिखाता हूँ,
रात में जुर्म से मिलाता हूँ,
मासूमों को पैसा दिलाता हूँ,
रावण के दर्शन कराता हूँ,
क्या इतना बदल गया हूँ मैं ???
पर यह सब करके इस अंधे बाज़ार में,
शायद अब जम गया हूँ मैं...
हां भाई हां...
अब तो पत्रकार बन गया हूँ मैं...!!!
- देवास दीक्षित
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